जय शनिदेव
एक साधु था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ छपने वाले थे। गरीब साधु था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी उस इलाके में अकाल आ गया।
उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं-नहीं, ये रुपये अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं, जीते हैं, चलता है यह सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
लेकिन वह साधु हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये अकाल के काम में दे दिए। फिर बूढा साधु, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की।
दस साल में फिर दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, विद्वानों को लाए। तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गई और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।
तो उसके भिक्षुओं ने कहा यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़े आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार-बार रुपये इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।
लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस-बारह साल में फिर वह दस-पंद्रह हजार रुपये इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई।
तो उसने पहली किताब में लिखा : थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।
तो उसके मित्र कहने लगे? पहले दो संस्करण कहां हैं? निकले ही कहां? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।
लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी।
फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है।
यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता है, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।
जीवन है चारों तरफ बहुत दुख और पीड़ा से भरा हुआ। उसमें मैत्री के संस्करण, उसमें मैत्री की अभिव्यक्ति प्रकट होती रहनी चाहिए और वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए चुनना होता है कि उसकी मैत्री किन-किन मार्गों से प्रकट हो और बहे।