घटना उस समय की है जब द्वापर युग में भगवान् श्री कृष्ण ने अवतार लिया सभी देवी देवताओं ने बाल रूप के दर्शन पाए परन्तु भगवान् शंकर वंचित रह गए तब उन्होंने विचार किया मेरे प्रभु श्रीराम ने लीला पुरुषोत्तम के रूप में अवतार लिया है मैं भी दर्शन के लिए चलूँ परन्तु बाल कृष्ण को उपहार देने के लिए विचार करने लगे

 

एक कृति जो भगवान् शिव ने अपने हाथ से तैयार की थी,वह थी वंशी जो दधीच कि हड्डी से बनी हुई थी दधीची की हड्डी से वृत्तासुर के वध के लिए विश्वकर्मा ने तीन धनुष क्रमशः शारंग,पिनाक और गांडीव और एक वज्र तैयार किया शारंग भगवान विष्णु को दिया गया,पिनाक और गांडीव भगवान् शंकर को दिया गया और वज्र इन्द्र को दिया गया जिससे वृत्तासुर का वध हुआ।

 

पिनाक तो देवासुर संग्राम में भगवान् शंकर ने त्याग दिया था जो सत्ताइश पीढ़ी पहले जनक के राज्य में पहुँच गया,जिसका खंडन राजा राम चन्द्र ने किया गांडीव अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवान् शंकर ने अर्जुन को दे दिया सारंग भगवान् विष्णु ने परशुराम जी की तपस्या से प्रसन्न होकर परसुराम जी को दे दिया जो परशुराम जी ने धनुष यज्ञ में राजा रामचंद्र जी को वापिस किया।

 

जिस वक्त पिनाक और गांडीव धनुष विश्वकर्मा, भगवान् शंकर को दे रहे थे उस वक्त दाधीच की हड्डी का बचा हुआ एक टुकड़ा भी भगवान् शंकर को दिया,भगवान् शंकर ने बड़ी मेहनत से घिस घिस कर उसकी वंसी बनायीं।

 

आज जब बालकृष्ण के दर्शन करने जाने लगे तो शिव ने सोचा कि उपहार तो अपनी मेहनत का ही होना चाहिए अतः वह वंशी लेकर भगवान् बालकृष्ण के दर्शन के लिए और उन्हें वह वंशी उपहार स्वरूप उनके हाथो में दे दी प्राणों से ज्यादा प्रिय शिव ( कोऊ नहि शिव समान प्रिय मोरे ) के दिए हुए उपहार को भगवान् श्री कृष्ण हमेशा वंशी को होठों से लगा कर रखते थे इसलिए राधा रानी वंशी को अपनी सौत मानती थी।

 

।। जय श्री कृष्ण ।।

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