माता सीता जी ने, श्रीहनुमान जी को जो संदेश दिया, वह बड़ा मार्मिक है। माता सीता जी कहती हैं, कि हे तात, आप श्रीराम जी को इंद्रपुत्र जयंत जी की कथा सुनाना। सज्जनों विचार कीजिए! माता सीता जी ने यह क्यों कहा, कि प्रभु श्रीराम जी को जयंत की कथा सुनाना। इस कथा के माध्यम से माता सीता जी कया कहना चाहती हैं। अगर आप जयंत की कथा को सुनेंगे, तो पायेंगे, कि जयंत ने एक बार कौवा का रुप धारण करके,

माता सीता जी के पावन श्रीचरण के एक अंगूठे को, अपनी चोंच के प्रहार से घायल कर दिया था। यह देख भगवान श्रीराम जी ने क्रोधित दृष्टि से जयंत को घूरा। जयंत ने देखा, कि श्रीराम जी अब उसे अवश्य ही दण्डित करेंगे। भयग्रसित होकर जयंत भाग खड़ा हुआ। पर उसे क्या पता था, कि प्रभु श्रीराम जी से बचकर भला वह कहाँ जा पायेगा। कारण कि सृष्टि के कण-कण में तो प्रभु श्रीराम जी का वास है। फिर वह कौन से स्थान पर जाकर छुपेगा?

 

प्रभु श्रीराम जी ने भी एक तिनके का संधान कर, जयंत के पीछे छोड़ दिया। वह तिनका कोई तिनका न होकर, मानों ब्रह्मास्त्र था। जिसके प्रकोप से बचना संभव ही नहीं था। जयंत तीनों लोकों में भागता रहा। लेकिन वह घास का तिनका उसके पीछे लगा ही रहा। ब्रह्मा, विषणु और महेश भी उसकी रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध हुए। तब वह श्रीराम जी की ही शरण में जाकर गिरा। और मृत्यु से बच पाया। माता सीता मानों श्रीराम जी को उलाहना दे रही हैं,

 

कि हे प्रभु आप द्वारा आदेशित किए गए, एक क्षुद्र से तिनके में भी जब इतनी शक्ति है, कि उसे तीनों लोकों के स्वामी भी रोकने में असमर्थ थे। तो सोचिए, कि जब आप अपने बाण को संधान करके छोडेंगे, तो उस राम-बाण में कितनी शक्ति होगी। मेरे कहने का तात्पर्य आप समझ ही गए होंगे। इसलिए या तो एक मास के भीतर-भीतर आप अथवा आपका बाण ही हमारे पास चले आयें। अन्यथा एक मास के पश्चात आप मेरा मरा मुख देखेंगे। श्रीहनुमान जी तो माता सीता जी की मनःस्थिति समझ ही रहे थे।

 

उन्होंने श्रीसीता जी को बहुत प्रकार से समझाया, उन्हें धीरज धराया। और माता सीता जी को प्रणाम कर, श्रीहनुमान जी, प्रभु श्रीराम जी के चरणों में पुनः लौट गये

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