सवाल: क्या ज़हवए कुबरा के वक्त रोज़े की नीयत की जा सकती है?

 

 

 

 

जवाब: ज़हवए कुबरा (यानी जब सूरज ख़त-ए-निस्फ़ुन्नहार शरई पर पहुंच जाए) नीयत का वक्त नहीं है। नीयत इससे पहले कर लेनी ज़रूरी है। अगर किसी ने ख़ास इसी वक्त नीयत की तो उसका रोज़ा नहीं होगा।

 

सवाल: अगर यूं नीयत की कि “कल अगर कहीं दावत हुई तो रोज़ा नहीं, वरना रोज़ा है”, तो क्या यह नीयत सही है?

 

जवाब: ऐसी नीयत करना दुरुस्त नहीं। अगर कोई इस तरह नीयत करे तो वह रोज़ेदार नहीं होगा।

 

सवाल: अगर सहरी में रोज़े की नीयत करना भूल गया और फज्र की नमाज़ में याद आया तो क्या उस वक्त नीयत कर सकता है?

 

जवाब: अगर फज्र की नमाज़ में रोज़े की नीयत कर ली तो रोज़ा हो जाएगा, क्योंकि सुबह सादिक़ के बाद भी नीयत का वक्त रहता है। नेज़, सहरी खाना भी नीयत के क़ायम मक़ाम है, चाहे वह रमज़ान के रोज़े के लिए हो या किसी और रोज़े के लिए।

 

सवाल: अगर कई साल के रोज़े क़ज़ा हों तो उनकी अदायगी की नीयत कैसे करनी चाहिए?

 

जवाब: अगर कई रोज़े क़ज़ा हो चुके हों तो नीयत यूं होनी चाहिए कि “मैं सबसे पहले इस रमज़ान के पहले क़ज़ा रोज़े की नीयत करता हूं, फिर दूसरे की, और इसी तरतीब से बाकी रोज़ों की नीयत की जाए।” अगर कुछ रोज़े एक साल के और कुछ दूसरे साल के क़ज़ा हों तो नीयत में यह वाज़ेह होना चाहिए कि “इस साल के और पिछले साल के क़ज़ा रोज़े रख रहा हूं।” अगर दिन और साल का ताय्युन न भी करे तो भी क़ज़ा अदा हो जाएगी।

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