रोज़े का फिदया क्या है? और अगर मय्यत ने वसीयत की हो तो फिदया का क्या हुक्म है

 

 

 

कानपुर 12/ मार्च सवाल: रोज़े का फिदया क्या है? और अगर मय्यत ने वसीयत की हो तो फिदया का क्या हुक्म है?जवाब: एक रोज़े का फिदया एक सदक़ा-ए-फितर की मात्रा है। अगर मय्यत ने अपने माल से रोज़े का फिदया अदा करने की वसीयत की है तो यह वसीयत वारिसों की मौजूदगी में सिर्फ़ एक-तिहाई माल में लागू होगी। अलबत्ता, अगर वारिस मौजूद न हों तो पूरी जायदाद से रोज़े का फिदया अदा करना लाज़िम होगा।

सवाल: क्या शैख़-ए-फ़ानी रोज़ा छोड़ सकता है?

जवाब: शैख़-ए-फ़ानी यानी वह बूढ़ा जिसकी उम्र इतनी हो गई कि अब वह दिन-ब-दिन कमज़ोर ही होता जाएगा और वह रोज़ा रखने से आजिज़ हो, यानी न अभी रोज़ा रख सकता हो और न आगे उसमें इतनी ताक़त आने की उम्मीद हो कि रोज़ा रख सकेगा, उसे रोज़ा न रखने की इजाज़त है। हर रोज़े के बदले में फिदया यानी एक सदक़ा-ए-फितर की मात्रा किसी मिस्कीन (ग़रीब) को दे दे।

सवाल: अगर कोई बूढ़ा गर्मी की वजह से रोज़ा नहीं रख सकता लेकिन सर्दियों में रख सकता है तो क्या करना चाहिए?

जवाब: अगर कोई बूढ़ा गर्मी की वजह से रोज़ा नहीं रख सकता तो उसे रोज़ा न रखने की इजाज़त है। हां, अगर सर्दियों में रोज़ा रखने की ताक़त है तो उसके बदले में सर्दियों में रोज़ा रखना फ़र्ज़ होगा।

सवाल: अगर फिदया देने के बाद रोज़ा रखने की ताक़त आ गई तो क्या हुक्म है?

जवाब: अगर फिदया देने के बाद इतनी ताक़त आ गई कि रोज़ा रख सके, तो फिदया सदक़ा-ए-नफ़्ल बन जाएगा और इन रोज़ों की क़ज़ा रखना वाजिब होगा।

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