कानपुर

 

गोरी हुकूमत से टकराने की हिम्मत रखने वाले कानपुर की रगो में क्रांति का लहू दौड़ता है। रंगबाज शहर का अक्खड़ मिजाज सदियों पुराना है। इसी मिजाज ने शहर में सात दिन की होली की नींव रखी और गंगा मेला की परंपरा शुरू हुई। यूं तो गंगा मेला का इतिहास पुराने कनपुरिए बहुत अच्छे से जानते हैं, लेकिन नई-नवेली पीढ़ी गंगा मेला के रोचक इतिहास से वाफिक नहीं है। गंगा मेला का इतिहास बेहद रोचक है और कानपुर के मिजाज को समझने के लिए काफी है।

बात शुरू करते हैं इतिहास के अध्याय से। गंगा मेला की प्रथा शुरू हुई थी ब्रिटिश कॉल में। साल था 1942, कानपुर की धड़कन का रुतबा रखने वाले हटिया बाजार में होली की रंगत देखते बनती थी। हटिया से लोहा, स्टील, कपड़ा और अनाज का कारोबार होता था। यहां तमाम धन्ना सेठ रहते थे, इस नाते क्रांतिकारियों को हटिया से देशप्रेम के लिए तमाम मदद भी मिलती थी। मार्च महीने में होली के एक दिन पहले क्रांति के दीवानों की टोली हटिया के रज्जन बाबू पार्क में गुलाल-अबीर उड़ा रहे थे। फिजां में आजादी के तराने गूंज रहे थे। इस दरमियान देशप्रेम की रंगत में नौजवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की परवाह बगैर तिरंगा लहरा दिया। जैसे ही तिरंगा फहराने की भनक गोरे हुक्मरानों को लगी तो करीब एक दर्जन से ज्यादा सिपाही घोड़े पर सवार होकर आए और झंडा उतारने लगे। तिरगे का अपमान देखकर होली खेल रहे नौजवानों ने अंग्रेज सिपाहियों को खदेड़ दिया।सिपाहियों को खदेड़ने की खबर मिलने के बाद अंग्रेज हुक्मरानों ने बड़ी संख्या में फोर्स भेजकर गुलाब चंद्र सेठ, बुद्धलाल मेहरोत्रा, नवीन शर्मा, विश्वनाथ टंडन, हमीद खान, गिरिधर शर्मा समेत 45 लोगों को गिरफ्तार कर सरसैया घाट के करीब जेल भेज दिया। यही जेल आज जिला जेल के नाम से पहचान रखती है। बहरहाल गिरफ्तारी के विरोध में शहर के आम-खास लोग उतर आए। क्रांतिकारियों और मजदूरों के शहर में मेहनतकशों के साथ-साथ साहित्यकारों, व्यापारियों और जनता-जनार्दन ने काम करने से इंकार कर दिया।

काम क्या बंद किया गया, यूं समझिए कि जनता हड़ताल का अघोषित ऐलान कर दिया गया था। मजदूरों ने कपड़ा मिलों में जाना बंद कर दिया तो व्यापारियों ने दुकानों में ताला लगा दिया। खुदरा व्यापार करने वालों ने फेरी लगाना बंद कर दिया। इसके अलावा जन-सामान्य ने भी रोजमर्रा के काम ठप कर दिये थे। देखते-देखते आस-पास के ग्रामीण इलाकों का भी व्यापार बंद हो गया। ट्रांसपोर्टर के हड़ताल में शामिल होने ने अंग्रेज हुकूमत का कानपुर से संचालित व्यापार डगमगाने लगा था। जनता हड़ताल का ऐसा अनूठा उदाहरण आजतक भारत में इकलौता उदाहरण है।हड़ताल की खबर ब्रिटिश महारानी तक पहुंच चुकी थी। इधर, जनता हड़ताल के तेवर तीखे होने लगे थे। पुराने मोहल्लों- हटिया, घुमनी मोहाल, चौक, चावलमंडी. मेस्टनरोड, हूलागंज सहित तमाम इलाकों की महिलाएं और बच्चे भी रज्जनबाबू पार्क में धरने पर बैठ गए। व्यापार ठप होने से अंग्रेज परेशान हो रहे थे। आखिरकार महारानी के हुक्म पर अंग्रेज अफसर झुके और रज्जनबाबू पार्क में चार घंटे की मान-मनौव्वल के बाद क्रांतिकारियों को रिहा करने का फैसला करना पड़ा। क्रांतिकारियों को होली के दिन गिरफ्तारी के छह दिन बाद क्रांतिकारियों की रिहाई हुई तो समूचा शहर अबीर-गुलाल लेकर सरसैया घाट पर उमड़ पड़ा। उस दिन अनुराधा नक्षत्र था।क्रांतिकारियों की रिहाई के बाद कानपुर ने बसंती चोला पहनकर जयघोष किया। क्रांतिकारी के साथ उल्लास और जीत की रंगत से चहकता कानपुर वर्ष 1942 को सरसैया घाट से हटिया तक जुलूस की शक्ल में लौटा था। फिर परंपरा की नींव पड़ी और अगले बरस से अनुराधा नक्षत्र के दिन हटिया के रज्जनबाबू पार्क से रंगों का ठेला निकलता है। कनपुरिया मिजाज का यह कारवां बिरहाना रोड, जनरलगंज, मूलगंज, चौक, मेस्टन रोड होते हुए कमला टावर से गुजरता है। रास्ते में नारीशक्ति छतों से फूलों के साथ-साथ रंग बरसती हैं। कारवां करीब एक दर्जन मोहल्ले में घूमता हुआ दोपहर दो बजे रज्जन बाबू पार्क में पहुंचकर ठहराव लेता है। इसके बाद संध्या बेला पर सरसैया घाट पर गंगा मेला का आयोजन होता है।गंगा मेला के दिन कानपुर में जबरदस्त होली होती है। राजन बाबू पार्क में ध्वजारोहण के बाद राष्ट्रगान होता है। क्रांतिकारियों को नमन करने के बाद रंग का ठेला निकलता है। विरासत को सहेजने वाला कानपुर आज भी पुरातन अंदाज में भैसा ठेला लेकर हटिया से निकलता है। बदलाव की बयार में कुछ टैक्टर भी शामिल हो गए हैं, लेकिन निराला अंदाज भैंसा ठेला की मौजूदगी से दिखता है। रंग के ठेलों के साथ ऊंट-घोड़े भी जत्थे में शामिल होकर कदमताल करते हैं।

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