*आज “1000वाँ वंदे मातरम गायन दिवस उत्सव” मनाया गया*
गोविंद नगर विधानसभा के विधायक सुरेंद्र मैथानी जी के सेवा कार्यालय में निरंतर होने वाले वंदे मातरम गायन का 1000 वां दिवस आज पूर्ण होने पर, रंगोली गेस्ट हाउस लाजपत नगर में उत्सव कार्यक्रम आयोजित किया गया।
प्रांत प्रचारक श्री श्रीराम जी ने ऑनलाइन मोबाइल पर उक्त वंदे मातरम सभा को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि वंदे मातरम आजादी का मूल मंत्र था जिसको सुनकर अंग्रेजों के कान जलने लगते थे। जिस गांव में वंदे मातरम की आवाज उठती थी उसे वह पूरा विद्रोही गांव घोषित कर देते थे। डॉक्टर हेडगेवार जी ने भी, अपने विद्यालय में वंदे मातरम कहा और उस पर उन्होंने माफी नहीं मांगी, तो उनका नाम स्कूल से काट दिया गया था।वंदे मातरम आज भी हमारे रोयां-रोयां को जगा देता है।
विधायक सुरेंद्र मैथानी जी ने बताया कि होली हो, दीपावली हो, वंदे मातरम के गायन में एक भी दिन का गैप नहीं हुआ है साथ ही बताया कि मैं कार्यालय में हूं या ना हूं लेकिन नित्य वंदे मातरम गायन पूर्ण होता है ऐसी परंपरा सुचारू रूप से चली आ रही है और मुझे यह गर्व है कि नित्य प्रतिदिन वंदे मातरम गायन संपन्न होता है
विधायक सुरेंद्र मैथानी जी ने,अपने उदबोधन में कहा कि वंदे मातरम का गायन यह सामान्य गायन नहीं है। वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है। यह गीत बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखा गया था, और इसे बाद में रवींद्रनाथ टैगोर ने संगीतबद्ध किया था. इसे भारतीय संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को भारत के राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया था.
विधायक सुरेन्द्र मैथानी जी ने बताया कि बंगाल के कांतल पाडा नाम के गांव में 7 नवंबर 1876 को वंदे मातरम गीत की रचना की गई थी। पहली बार 1896 में, आजादी के संगठन के कलकत्ता अधिवेशन में वंदे मातरम गाया गया था। यानी भारत को आजादी मिलने से करीब 51 साल पहले। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इस गीत ने बड़ी भूमिका निभाई थी। लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित करने का काम किया था। अंग्रेजों के लिए ये विरोध का स्वर था। वंदे मातरम को स्वरबद्ध करने का काम रबींद्रनाथ टैगोर ने किया था। जिस प्रकार से राष्ट्रगान जन गण मन को 52 सेकंड में गाया जाता है। इस प्रकार से राष्ट्रगीत बंदे मातरम को 1 मिनट और 9 सेकंड में पूर्ण गाया जाता है।और वंदे मातरम्’ के दो शब्दों ने देशवासियों में देशभक्ति के प्राण फूंक दिए थे और आज भी इसी भावना से ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता है। हम यों भी कह सकते हैं कि देश के लिए सर्वोच्च त्याग करने की प्रेरणा देशभक्तों को इस गीत से ही मिली। पीढ़ियां बीत गई पर ‘वंदे मातरम्’ का प्रभाव अब भी अक्षुण्ण है। ‘आनंदमठ’ उपन्यास के माध्यम से यह गीत प्रचलित हुआ। उन दिनों बंगाल में ‘बंग-भंग’का आंदोलन उफान पर था। दूसरी ओर महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन ने लोकभावना को जाग्रत कर दिया था।
विधायक जी ने बताया कि बंग भंग आंदोलन और असहयोग आंदोलन दोनों में ‘वंदे मातरम्’ ने प्रभावी भूमिका निभाई। स्वतंत्रता सैनिकों और क्रांतिकारियों के लिए तो यह गीत मंत्रघोष बन गया था।
विधायक जी ने बताया कि बंकिम बाबू ने ‘आनंदमठ’ उपन्यास सन् 1880 में लिखा। कलकत्ता की ‘बंग दर्शन’ मासिक पत्रिका में उसे क्रमशः प्रकाशित किया गया। अनुमान है कि ‘आनंदमंठ’ लिखने के करीब पांच वर्ष पहले बंकिम बाबू ने ‘वंदे मातरम्’ को लिख दिया था। गीत लिखने के बाद यह यों ही पड़ा रहा। पर ‘आनंदमठ’ उपन्यास प्रकाशित होने के बाद लोगों को उसका पता चला।
जिला अध्यक्ष अनिल दिक्षित जी ने कहा कि बंकिम बाबू ‘बंग दर्शन’ के संपादक थे। एक बार पत्रिका का साहित्य कम्पोज हो रहा था। तब कुछ साहित्य कम पड़ गया, इसलिए बंकिम बाबू के सहायक संपादक श्री रामचंद्र बंदोपाध्याय बंकिम बाबू के घर पर गए और उनकी निगाह ‘वंदे मातरम्’ लिखे हुए कागज पर गई। कागज उठाकर श्री बंदोपाध्याय ने कहा, फिलहाल तो मैं इससे ही काम चला लेता हूँ। पर बंकिम बाबू तब गीत प्रकाशित करने को तैयार नहीं थे। यह बात सन् 1872 से 1876 के बीच की होगी। बंकिम बाबू ने बंदोपाध्याय से कहा कि आज इस गीत का मतलब लोग समझ नहीं सकेंगे। पर एक दिन ऐसा आएगा कि यह गीत सुनकर सम्पूर्ण देश निद्रा से जाग उठेगा।
विधायक जी ने बताया कि इस संबंध में एक किस्सा और भी प्रचलित है। बंकिम बाबू दोपहर को सो रहे थे। तब बंदोपाध्याय उनके घर गए। बंकिम बाबू ने उन्हें ‘वंदे मातरम्’ पढ़ने को दिया। गीत पढ़कर बंदोपाध्याय ने कहा, ‘गीत तो अच्छा है, पर अधिक संस्कृतनिष्ठ होने के कारण लोगों की जुबान पर आसानी से चढ़ नहीं सकेगा।’ सुनकर बंकिम बाबू हंस दिए। वे बोले, ‘यह गीत शतकों तक गाया जाता रहेगा।’ सन् 1876 के बाद बंकिम बाबू ने बंग दर्शन की संपादकी छोड़ दी।
विधायक सुरेन्द्र मैथानी जी ने कहा कि सन् 1875 में बंकिम बाबू ने एक उपन्यास ‘कमलाकांतेर दफ्तर’ प्रकाशित किया। इस उपन्यास में ‘आभार दुर्गोत्सव’ नामक एक कविता है। ‘आनंदमठ’ में संतगणों को संकल्प करते हुए बताया गया है। उसकी ही आवृत्ति ‘कमलाकांतेर दफ्तर’ के कमलकांत की भूमिका निभाने वाले चरित्र के व्यवहार में दिखाई देती है।
धीर गंभीर देशप्रेम और मातृभूमि की माता के रूप में कल्पना करते हुए बंकिम बाबू गंभीर हो गए और अचानक उनके मुंह से ‘वंदे मातरम्’ शब्द निकले। यही इस अमर गीत की कथा है।
विधायक सुरेन्द्र मैथानी जी ने कहा कि सन 1896 में कलकत्ता में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। उस अधिवेशन की शुरुआत इसी गीत से हुई और गायक कौन थे पता है आपको? गायक और कोई नहीं, महान साहित्यकार स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर थे। कितना भाग्यशाली गीत है यह, जिसे सबसे पहले गुरुदेव टैगोर ने गाया।
विधायक सुरेन्द्र मैथानी जी ने कहा कि बंकिम बाबू एक कीर्तनकार द्वारा गाए गए एक कीर्तन गीत ‘एसो एसो बंधु माघ आंचरे बसो’ को सुनकर बेहद प्रभावित हुए। गीत सुनकर गुलामी की पीड़ा का उन्होंने तीव्र रूप से अनुभव किया।
इस एक गीत ने भारतीय युवकों को एक नई दिशा-प्रेरणा दी, स्वतंत्रता संग्राम का महान उद्देश्य दिया। मातृभूमि को सुजलाम्-सुफलाम् बनाने के लिए प्रेरित किया। ‘वंदे मातरम्।’ इन दो शब्दों ने देश को आत्मसम्मान दिया और देशप्रेम की सीख दी। हजारों वर्षों से सुप्त पड़ा यह देश इस एक गीत से निद्रा से जाग उठा। तो ऐसी दिलचस्प कहानी है वंदे मातरम् गीत की है। *और हम इसको अब लगातार नित्य गाते हुए, गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज कराएंगे।और जिस दिन यह गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज होगा, उस दिन पूरे कानपुर महानगर में एक वंदे मातरम यात्रा निकाली जाएगी*
उक्त कार्यक्रम में मुख्य रूप से विधायक सुरेंद्र मैथानी, दीपक सिंह,जिला अध्यक्ष अनिल दिक्षित,सीमा यम.बी.ए. तथा आनंद दुबे, शैलेंद्र पांडे, गुड्डन शुक्ला एवं मंडल अध्यक्ष गण दीपक शुक्ला, अजय राय, संतोष सिंह, विजय पटेल एवं किरन तिवारी, सरोज सिंह, पूनम कपूर, रंजीता पाठक, दीपक राजपूत,पुल्ली पांडेय, सुमन सक्सेना, रवि दुबे, अरविंद सिंह, विजय मिश्रा आदि थे।